The last letter: आखिरी खत

एक आखिरी ख़त…..

       बहुत कोशिश की तुम्हे भूलने की पर नाकाम रहा ।                                    तुम अक्सर चली आती हो मेरे सपनो में ; मेरी कविताओं में ;कभी आखिरी साँस बनकर :कभी मेरे जीने की इकलौती आस बनकर ; कभी आंसू बनकर बह जाती हो ; और कभी-कभी दर्द बनकर दिल में ही रह जाती हो!

  तुम्हे शायद खबर नही होगी कि तुम्हारे जाने के बाद जमाना मेरा दुश्मन सा बन गया है ; शायद तुम ये तो कभी नही चाहती थी । खैर जिंदगी अब थोड़ी मुश्किल सी हो गयी है ।

            तुम्हे पता है तुम्हारे बारे में सबसे खास क्या है ,तुम्हारी यादें । तुम्हारी यादों में मैं आजकल खुद की तलाश करता हूँ । तुम शायद भूल गयी होगी मगर मुझे वो पहला दिन अच्छे से याद है, वो पहली क्लास और लोगों से भरा वो छोटा सा कमरा । उन सबके लिए शायद मैं एक नमूना था मगर उस भीड़ में मुझे सिर्फ तुम्हारे साथ एक अपनापन महसूस हुआ।

                 अरे ! मुझे तो वो दिन भी याद है जब पूरा कमरा तुम्हे मेरा नाम लेकर छेड़ रहा था और तुम शर्मीले से अंदाज में मेरा बचाव कर रही थी ;बस मैं उसी दिन से तुम्हारी खुशियो में अपनी खुशियां तलाशने लगा था ।।

            तुम्हे शायद याद न हो मगर तुम्हारे जन्मदिन पर मैंने पहली और आखिरी बार शराब पी थी क्योंकि तुमने अपने हाथो से मुझे दी थी , मैं भला मना करता भी तो कैसे? और हाँ उसके बाद घर जाकर मैंने ढेर सारी उलटी की थी । काश तुम्हें ना कहने की हिम्मत होती मुझमें ।

                तुम्हे वो बातें तो जरूर याद होगी जब तुम हमेशा के लिए मेरा साथ देने की कसमें खाया करती | 

             और उसके बाद न जाने क्यों हमारे बीच में दूरियां आ गयी । तुम मुझसे दोस्ती का वो रिश्ता तोड़ कर चली गयी और मुझे तुम्हे रोकने का मौका भी नही मिल पाया,मेरे हालातों ने मेरी हर कोशिश नाकाम कर दी ।


            और न जाने क्यों मैं अब भी तुमसे गुस्सा नही हूँ रोज खुद को इल्ज़ाम देता हूँ ये सोच कर कि शायद मेरी ही कोई गलती रही होगी क्योंकि तुम कभी ग़लत हो ही नही सकती ।।

     शायद तुम जिंदगी में खुश हो मगर मैं हर रोज एक गम के साथ उठता हूँ ,तुम्हे खोने का गम ।

कल कई सालों बाद तुम फिरसे मेरे सामने खड़ी थी। तुम्हारी नज़रें शायद मुझे ढूंढ नही पाई होगी मगर मेरी नजर एक पल के लिए भी तुमसे न हटी ।। और ये क्या ? तुम चल दी!! मन हुआ रोक लू तुम्हे ;तुमसे तुम्हारे जाने की वजह तो पूछ ही लूँ , मगर मैंने जाने दिया तुम्हे |

    तुम्हारा मुझ से दूर जाता एक-एक कदम तुम्हे मेरी जिंदगी से कोसो दूर ले जा रहा था और मैं भीड़ में अकेला खड़ा अपनी बर्बादी के आंसू बहा रहा था ।।

    जानता हूँ कि तुम कभी मेरे थे ही नही मगर इस लम्हे का मुझे उम्र भर मलाल रहेगा ……………………………….काश तुम्हे उस दिन तुम्हे जाने से रोक लेता…………..।।

          – तुम्हारा

                 (वो नाम जो मुझे सिर्फ तुमसे सुनना ही अच्छा लगता था )

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस‬

   

लावा रगो में , अंगारे सी जलती आँखे 

और लबो पर गीत सदा आजादी के

हर कतरा ख़ूँ का क़ुर्बा वतन पर

कुछ ऐसे जन जन के “नेताजी” थे ।।

वेश भी बदला , देश भी छोड़ा

जर्मनी जाकर सैनिक जोड़े

और दिल में हर पल आजादी का आभास रहा 

जब जब जिक्र हुआ आजाद हिन्द का

गर्व से हर हिंदुस्तानी ने “सुभाष” कहा ।।

सदियो से जंजीरो में जकड़े देश को

जिसने शान से जीने की अभिलाषा दी

उस “चन्द्र” के जीवन दर्शन ने 

हिन्द की हिम्मत को परिभाषा दी ।।

आजाद हूँ मैं , आजाद हो तुम भी 

आओ वतन पर मिटने वालो का उदघोष करें 

हिन्द के सच्चे नायक की याद में

सुथार एक स्वर में “बोस” कहें ।।
           – गुलेश सुथार

माँ , माटी और गांव

यूँ तो बहुत कुछ लिखा गया है माँ एंव माटी के बारे में मगर इनकी स्तुति में जितना लिखा जाए उतना ही कम है ।

ये वो विषय है जिनके साथ हर कोई भावनात्मक तरीके से जुड़ाव महसूस कर सकता है ।

आप सबके सम्मुख प्रस्तुत है मेरी कलम से लिखी हुई कुछ नज़्म माँ एंव माटी के नाम
 शहरी बुतों से तंग आ गए हो 

तो गांव लौट जाना

सुना है वहां अब भी इंसान बसते है ।१।
मोहब्बत के नाम पर आडम्बरों से बहुत ऊबा बैठा हूँ

मैं एक मुद्दत से माँ और माटी के प्रेम में डूबा बैठा हूँ ।२।
खुदा की बन्दगी छोड़ दी मैंने , माँ मैं तेरी नज्म गाता हूँ

मुझे दोजख का गम नही, तेरी रुसवाई से खौफ खाता हूं ।३।
एक हाथ में खुशियां, एक हाथ में सपने 

सर पर उम्मीदों का बोझ लेकर

शहरी धुएं के बादलों से दूर

संकरी पगडंडियों के रास्ते 

आओ अब गांव लौट चलें ।४।
उसकी सरहदें बस मुझ तक है

मुझसे ही उसका सारा जहां है ,

रोज़ दुनिया से लड़ती है मेरे लिए

माँ मेरे लिए किसी फौज़ी से कम कहां हैं ।५।
मां ने कामयाबियों के शिखर पर कुछ यूं चढ़ा दिया ,

संस्कारों की किताब का मुझे हर पन्ना पढा दिया ।६। 
शहर के करीब है मगर दूरियां बहुत है

मेरे गाँव के लोगों की मज़बूरियां बहुत है ।७।

                    – गुलेश सुथार

गांधी या गोडसे

सत्य , अहिंसा और शांति की मूरत है गांधी,

राष्ट्रपिता के हत्यारे की सूरत है गोडसे।

लाठी , धोती ओर एक चरखे के दम पर

आजादी लाने वाले संत है गांधी ,

अहिंसा के चेहरे की हत्या का आंतक है गोडसे ।

देश की खातिर सब कुछ तजकर श्रेष्ठ नज़र आते है गांधी

एक वृद्ध की हत्या कर गौण हो जाता है गोडसे।

मगर दामन में अपने देश बांटने का दाग लिए बैठे है गांधी

संत हत्या का पाप किए बैठा है गोडसे ।

आगजनी की एक घटना पर  ‘असहयोग ‘ डिगाते हैं गांधी,

विश्व युद्ध मे ब्रितानी सरकार के भागीदार हो जाते है गांधी,

मगर ‘अखण्ड भारत” के स्वपन में अपना सम्मान लुटा बैठा है गोडसे,

मरते देख लोगों को बंटवारे पर

“गांधी वध” का साहस जुटा बैठा है गोडसे।

देशप्रेम में क्रांतिकारी के बलिदानों को आतंक बतलाते है गांधी,

“जलियांवाला बाग” पर मौन क्यूं रह जातें है गांधी ,

हिन्द को नेहरू पाक को जिन्ना की जागीर बना डाला ग़ांधी ने,

मगर आजाद , सावरकर की बलिदानी का दम भरकर ये क्या डाला गोडसे ने ।

लाख करो कोशिश मगर तुम 

गोडसे को गाँधी से अलग नही कर सकते हो

जब जब गाँधीजी का इतिहास लिखा जाएगा

गोडसे का जिक्र किया जाएगा

आखिर कौन सही था

गाँधी या गोडसे ??

          – गुलेश सुथार

                    

Shevya, 28y/f

It was 10 am already and I was half an hour late in starting my OPD, that remained open 6 days a week except the usual festivals – that I rarely used to celebrate after my med school. Anyhow, this is not what this assembly of alphabets is about. 

It was not a usual day, there were less people in the waiting area – and even less patients – as 30% of the crowd were just attendants accompanying their corresponding patients – whom the learned doctors term of much importance, as they possess a huge information about the patients’ history. Diwali was approaching and, no, it was actually a usual day – you get less patients around Diwali – Idk what stops them from falling ill. Is it just that they pretend to be less ill when they are in the mood of the festival? 

Well, I am Dr. Mrityunjay Verma (atleast the board outside my room states so), who runs a small clinic in the Cantonment of Ambala. 

“Dev! Bring me the appointment cards of the patients waiting outside,” I called out to my receptionist-cum-friend (he had quite the same story as mine – pieces sticking together with a glue of gloom).

“Sure Sir.”

My receptionist-cum-friend brought in a pile of 20 cards and assigned the patients’ their sequential number. Every ring of my bell brought a new patient in – with an old disease. Within 10 minutes, my usual day started. I’ve been dealing with the routine cold, cough, fever, disturbed motions, headaches and stomach aches since the past three years – and prescribing three-four medicines from the list of 20 preferred routine medicines. 
11:30 am

The name of the next patient was somehow familiar, “Shevya.” Not that I haven’t attended any patients with names common with my friends or family – infact every 12th-13th patient I attend has a common first name with the first one and it is quite natural – but this name was related to me, or atleast I felt so.

‘Shevya, 28y/F, Husband’s name: Mridul Malik’

It has been 10 years since I last talked with ‘my girl’, but every time I come across this name, my heart skips a beat. Merely the presence of her name pulls me in itself, and drowns me to the depths of time – only to make me encounter all the sugar-sweet memories that we made when we were yet in our school time. She was my tuition-mate (I still wonder, “why only ‘my’ tuition classes, when there were hundreds of teachers in the twin city?”) – and she used to drive her activa – with a paint of white, still a shade darker than the shade of her skin. 

Four years! For four years, everyday, I used to gander through the crowd to catch a glimpse of her – the moment that used to ornamentalise my day. Asocial, I was, when it came to girls, and the only path that was my highway for conversations – was books. Books and letters and concepts were what we would talk about, everytime an incidence of a conversation occurred. 
Words were not my thing back then, still, I gathered some adjectives describing beauty and some abstracts relating to love, and put them together – in a letter of appreciation – stating my love for her. Four years of patience, wait and despair – four years of longing and fear – four years of unconditional love! And she, the demonic angel, the harbinger of agony, tore it into pieces, as if she owned it herself (though she actually did). She tore it, and I felt as if, she’s tearing pieces off my soul – ‘withering’ and ‘demolishing’. Such was the pain, that the sound of shredding of paper still gives me the kinda goosebumps it gave me at that instant. Such was the agony – that vexation – that I still shiver on hearing that name – ‘Shevya’.
But I didn’t stop there. I lifted my head, already weighing a tonne heavier, to look out through the window. Not only the name, but her face too, was the same – every detail – same pattern of applying mascara, same shade of pink on her lips, similar pattern of controlling locks – ah, she exhibited the same beauty that had made me forget my existence, 10 years back. But what kind of an omen was this? The ‘not my ex’ girl who had occupied most of the moments of my life’s last decade, was standing on my door, along with a registered appointment, to probably ask about the medication for heal-able crevices. But what made her arrive at ‘this’ doorstep? Didn’t she find any better doctors in the twin city? Or did she not read the plate outside that read out aloud that this particular person named ‘Doctor Mrityunjaya’ was to be found inside? The doctor who was known widely for being amongst the very rare ‘Gold-medalists’ from PGIMER – the same person whose soul had succumbed from injuries years back – the same person who has been visiting a psychiatrist once a week, every month, since 7.5 years. 

Or had she appeared here just to laugh on the pause that my life had acquired, over these years in her absence, and in the absence of any likeness of her in some hundred marriage proposals that I passed by. Or had she just appeared to check out on my love – just to check whether my memory had any traces of her? Or maybe she just simply thought that this decade (that had lasted longer than a century) would have had covered the past with a layer of dust, centimetres thick! Why on the face of earth had she arrived again?
Was it still in my abilities, to talk to her, about things more than levers and pulleys, about things more than botany and chemistry? Was I capable of prescribing suitable doses for her disease? Was my practice of Medicine efficient enough to prescribe her, ‘the drug of my life’, apt medication for her ailments. 10 years of my confrontations with medical issues were all dwindling and falling down in front of me – collapsing as if there was an earthquake that stood strong enough to dodge any past competitors. Rules and regulations were breaking off away in pieces. Oh god, how I wished to go and thrash her with interrogations that enquired if she had only arrived to ask me about how I had made it this far, alone!

But to exhibit my helplessness in diverting myself from my ‘Shevya’, or maybe just to showcase her the destiny, where my love and her hatred had pushed me to, or maybe just to portray falsely how ecstatic I still was, I gathered all my courage and rang the bell –

“Next patient please!”

              – Aayush Rana and Gulesh Suthar

हल्दीघाटी : एक दर्शन

मार्च में हमारे एक मित्र के साथ उदयपुर प्रवास का मौका मिला और वहां तय किया गया कि जब इतने पास आ गए तो क्यूँ न हल्दीघाटी के दर्शन (दर्शन शब्द इसलिए प्रयोग किया है क्योंकि महाराणा प्रताप की वीरता एंव त्याग के बारे में इतना सुना एंव पढ़ा है कि उनसे जुड़ा हर स्थान मेरे लिए देवतुल्य है ) करके आया जाए ,तो अगली सुबह हल्दीघाटी दर्शन का कार्यक्रम तय किया गया  ।

      अल सुबह 7 बजे दोनों मित्र उदयपुर बस स्टैंड पर हल्दीघाटी की बस की तलाश कर रहे थे मगर आश्चर्य हुआ कि पूरे दिन में हल्दीघाटी के लिए सिर्फ एक प्राइवेट बस जाती है तो बेहतर यही होगा कि उपली (हल्दीघाटी के पास एक गांव जो हाईवे पर पड़ता है ) तक बस में जाया जाए एंव वहां से लोकल बस या तिपहिया वाहन से हल्दीघाटी पहुंचा जाए । उपली पहुंचने के करीब 30 मिनट बाद खमनौर के लिये बस मिली । बस का विवरण दूं तो यही कहूंगा कि 15-20 सवारियां ही होगी एंव छोटी बस थी जिसमे स्थानीय भाषा मे पन्ना धाय की वीरता पर कोई गीत बज रहा था । ये दिल को काफी सुकून देने वाला था कि लोग आज भी उनकी वीरता को याद करते है जिन्होंने देश सेवा में आना सबकुछ दांव पर लगा दिया था , कितना अदम्य साहस होगा उस औरत में जिसने राणा उदय सिंह की रक्षा की खातिर अपने पुत्र की कुर्बानी दी होगी , धाय मां धन्य है आप ।

               खमनौर पहुंचने के बाद विदित हुआ कि हल्दीघाटी के नाम पर अभी केवल एक म्यूजियम ही है जो किसी पूर्व शिक्षक ने अपनी मेहनत एंव चंदे के सहारे खमनौर से 3 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर बनवाया है , खैर वहां तक पहुंचने के लिए एक तिपहिया किराये पर लिया गया जिसने लगभग 10 मिनट में हल्दीघाटी म्यूजियम के आगे पहुंचा दिया । रास्ते मे गुलाबजल की कुछ दुकानें एंव चेतक स्मारक आया जिसका दर्शन वापिसी की यात्रा के दौरान तय किया गया ।

                   म्यूजियम में ऑडियो विजुअल झांकियो के साथ महाराणा प्रताप की वीरता को दर्शाने की कोशिश की गई है एंव संक्षेप में समस्त मेवाड़ के गौरवमयी इतिहास की एक झलक प्रस्तुत की गई है । ये वाकई में एक देखने योग्य स्थान है । यहां मालूम हुआ कि हल्दीघाटी को उसके मिट्टी के हल्दी के रंग का होने के कारण हल्दीघाटी कहते है । म्यूजियम से वापिस चले तो रास्ते मे चेतक स्मारक के पास रुके जो राणाजी के प्रिय घोड़े चेतक (जो कि हल्दीघाटी के रण में जख्मी हुए एंव उसने दम तोड़ दिया) की याद में राणाजी के वंशजों द्वारा उन्नीसवी सदी में ही बनवाया गया था , स्मारक के सामने ही एक झरना था जो पूरे साल बहता रहता है एंव उसी के बगल में एक गुफा है जहां राणाजी युद्ध उपरांत रुके थे ।

                    वहां से खमनौर वापिस आते समय राणाजी के सेनापति हाकिम खां सूरी की मजार के दर्शन हुए एंव कहा जाता है कि यहां पहाड़ी की चढ़ाई के शुरुआत में उनका सर धड़ से अलग होकर  गिरा था एंव धड़ दुश्मन से लड़ते हुए नीचे रक्ततलाई में घोड़े से गिरा। दूसरी गौर करने वाली बात ये भी कि राणाजी जो कि हिन्दू थे उनके सेनापति मुस्लिम थे (हक़ीमख़ाँ सूरी जो शेरशाह सूरी के वंशज थे)  जबकि अकबर जोकि मुस्लिम थे उनका सेनापति हिन्दू  थे(जयपुर के राजा मानसिंह) , इस देश मे हिन्दू मुस्लिम कौमी एकता का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही कोई होगा ।

                        खमनौर में रक्ततलाई में पार्क का निर्माण किया गया है । यहां तोमर वंश के तीनों आखिरी पिता पुत्र , झलमानसिह ,चन्द्रशेख राठौर समेत राणाजी के सभी सेनानायकों के स्मारक बने हुए हैं । यहां कहा जाता है कि आठ घण्टे के हल्दीघाटी युद्ध मे इतने सैनिक मारे गए कि जब युद्ध के बाद घनघोर बारिश हुई तो पूरी घाटी (तलाई) खून में सने पानी से भर गई जिसके कारण इसे ‘रक्त्त-तलाई’ का नाम दिया गया । इसके इलावा स्थानीय लोगों के हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय पर विचार भी जानने योग्य है ।

                        इस पार्क के दर्शन के पश्चात खमनौर में ही एक हॉटेल में स्थानीय पकवानों एंव समोसे का आनंद लिया गया एंव नाथद्वारा के नाथ जी के मंदिर में दर्शन के लिए निकल गए जिसका वर्णन अगले वृतांत में करूँगा ।

                        मगर वापिस जाते वक़त देश के इतने महान गौरव एंव स्वाभिमान के प्रतीक महाराणा प्रताप के सबसे प्रसिद्ध युद्धस्थली के प्रति सरकार के उदासीन रवैये को देख कर सच में पीड़ा हुई । मैं वहां से बहुत सा जज्बा एंव देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होकर लौटा मगर मन में टीस थी कि शायद महाराणा प्रताप से जुड़ी यादों की सहेज इससे तो बेहतर प्रबंधन एंव गौरव के लायक है ।

                            – गुलेश सुथार 

मेरी कहानी

         मेरी कहानी

कब तक तक खामोश रहा मैं

अब जरा कहने दो मुझे कहानी मेरी ,

जरा सजाना महफिलें खामोशी में

आज न थमेगी जुबानी मेरी ।

जिक्र करेंगे उसका आज

जो वजह बताए बिना चली गयी ,

जिक्र होगा उसका भी आज

जो इश्क़ निभाये बिना चली गयी ;

कुछ किस्से होंगे उनके भी

जिनको मैंने छोड़ा है,

कुछ वादे ऐसे भी होंगे

जिनको मैंने तोड़ा है ;

एक पन्ने पर रख देंगे आज 

मोहब्बत की आखिरी निशानी मेरी,

कब तक खामोश रहा मैं

अब जरा कहने दो मुझे कहानी मेरी ।

कुछ चर्चा कुछ उन ख्वाबों का होगा

जो अभी हासिल न हुए,

एक अफसाना  उन अरमानो का होगा

जो कभी काबिल न हुए ;

जिक्र जरा सा होगा आज

टूटे बिखरे कुछ रिश्तों का

थोड़ा हिसाब कर लेंगे आज

मेरे गमों की किस्तों का ;

जरा वक़्त निकाल कर सुनले जमाने

आखिरी आज ये जुबानी मेरी,

आखिर कब तक खामोश रहा मैं

आज कहने दो मुझे कहानी मेरी ।।

      

               – गुलेश सुथार

सेल्फी

   नील आर्मस्ट्रांग को भी चाँद पर
   अगर आदत कुछ ऐसी लगी होती

   ‎तो अखबार के किसी पन्ने पर , उनकी भी सेल्फी छपी होती ;

   एडमंड हिलेरी भी अगर

   ‎एवरेस्ट तक का सफर कुछ सेल्फियों में पिरो जाते

   ‎तो वो भी शायद ओप्पो, वीवो के ब्रांड अंबेसडर हो जाते ।

   ‎रामायण का किस्सा भी

   ‎बिना राम सेतु के निपटाया जा सकता था,

   ‎लंका युद्ध का मुद्दा भी

   ‎राम-रावण की सेल्फी से सुलझाया जा सकता था;

   ‎महाभारत के युद्ध से बचकर 

   ‎ये धरा और महान हो सकती थी

   ‎कौरवों-पांडवों की सांझी सेल्फी भी

   ‎सिंहासन का समाधान हो सकती थी ।

   ‎गांधीजी ने लाठी की जगह अगर सेल्फीस्टिक उठाई होती

   शायद ‎उनकी तस्वीरें इंस्टाग्राम पर काफी ऊपर आई होती 

   ‎जिन्ना यूं पाकिस्तान शायद कभी बनाते ना

   ‎अगर नेहरू उनकी सेल्फी की मांग ठुकराते ना 

   ‎फूट डालो और राज करो के नारे बदले 

  अगर ‎सेल्फी का वहम दिया होता

   ‎तो शायद अबतक हिंदुस्तान पर गोरों ने राज किया होता ।

   ‎हीर ने रांझा को शायद

   ‎इतना भी ना प्यार किया होता

   ‎अगर किसी ने उनकी सांझी सेल्फी पर ऐतराज़ किया होता 

   ‎मजनूं भी इश्क़ में पागल यूं मारा मारा फिरता ना 

   ‎अगर लैला-मजनूं को सेल्फी का एक भी मौका मिलता ना ।

   ‎देहात की उन तस्वीरों के साथ

   ‎मुंशी प्रेमचंद खुद को भी सेल्फी में दिखला सकते थे 

   ‎मुशायरों की सेल्फी पर शायद

   ‎मिर्जा गालिब ढेरो लाइक पा सकते थे ।

   ‎पूरा विश्व शायद , यूं ना कभी लड़ा होता 

   ‎यहूदियों को सेल्फी से बाहर करने की ज़िद पर

   ‎अगर हिटलर ना कभी अड़ा होता ;

   ‎हिरोशिमा नागाशाकी को भी 

   ‎ परमाणु हमलों से बचाया जा सकता था

   ‎विश्व युद्ध जैसा मसला भी शायद सेल्फी से सुलझाया जा सकता था ।

                              – गुलेश सुथार

शराब

                               

बेमतलब से अल्फ़ाज़ थे, मतलब भी था कुछ फ़सानों का;

कल रात मेरे पास हर सवाल का जवाब था ।

कभी तेरी वफ़ा, कभी तेरी बेवफाई, कभी अपना इश्क़

एक आखिरी मुद्दा था तेरे हुस्न और शबाब का ।

मैं कुछ यू याद करता रहा तुझे रातभर कि

कभी मुस्कुराया ज़रा सा, कभी रोया बेहिसाब सा ।

एकबारगी लगा जैसे तू लौट आया हो मेरे खोंचे में

मगर फिर याद आया, तेरा होना बस एक ख्वाब था ।

यूं दोस्तों में बैठा बातें बनाता रहा मैं रातभर

जैसे पिला दिया हो किसी ने कुछ ‘शराब’ सा ।।

                        -गुलेश सुथार

मोहब्बत : एक मर्ज

मोहब्बत कोई दवा नही है, एक मर्ज है ।

मोहब्बत का कोई किस्सा नही, बस एक कहानी है;

ये समझदारों का हुनर नही, बेवकूफों की निशानी है ।

दिल के पाक डूब जातें है यहां, ये बेईमानों का कारोबार है;

आज की रद्दी बन गया जो, मोहब्बत कल का वो अखबार है ।

मोहब्बत कोई जश्न नही है, बस एक अफसोस है ;

यहां किसी के पाने की रती भर भी उम्मीद नही, बस खुद के खो जाने का रोष है ।

मोहब्बत कोई शौक नही , ये जो मिटा देती है खुद को वो लत है;

बदनाम कर दिया आशिक़ जमाने में जिसने , ये वो आदत है ।

जानते थे सब कि डूब  जाएंगे मग़र खुद को 

आजमाना जरूरी था,आखिर एक तज़ुर्बे में क्या हर्ज है ;

सनद रहे , मोहब्बत कोई दवा नही , एक मर्ज है ।।

                     गुलेश सुथार

 *सनद-याद