हल्दीघाटी : एक दर्शन

मार्च में हमारे एक मित्र के साथ उदयपुर प्रवास का मौका मिला और वहां तय किया गया कि जब इतने पास आ गए तो क्यूँ न हल्दीघाटी के दर्शन (दर्शन शब्द इसलिए प्रयोग किया है क्योंकि महाराणा प्रताप की वीरता एंव त्याग के बारे में इतना सुना एंव पढ़ा है कि उनसे जुड़ा हर स्थान मेरे लिए देवतुल्य है ) करके आया जाए ,तो अगली सुबह हल्दीघाटी दर्शन का कार्यक्रम तय किया गया  ।

      अल सुबह 7 बजे दोनों मित्र उदयपुर बस स्टैंड पर हल्दीघाटी की बस की तलाश कर रहे थे मगर आश्चर्य हुआ कि पूरे दिन में हल्दीघाटी के लिए सिर्फ एक प्राइवेट बस जाती है तो बेहतर यही होगा कि उपली (हल्दीघाटी के पास एक गांव जो हाईवे पर पड़ता है ) तक बस में जाया जाए एंव वहां से लोकल बस या तिपहिया वाहन से हल्दीघाटी पहुंचा जाए । उपली पहुंचने के करीब 30 मिनट बाद खमनौर के लिये बस मिली । बस का विवरण दूं तो यही कहूंगा कि 15-20 सवारियां ही होगी एंव छोटी बस थी जिसमे स्थानीय भाषा मे पन्ना धाय की वीरता पर कोई गीत बज रहा था । ये दिल को काफी सुकून देने वाला था कि लोग आज भी उनकी वीरता को याद करते है जिन्होंने देश सेवा में आना सबकुछ दांव पर लगा दिया था , कितना अदम्य साहस होगा उस औरत में जिसने राणा उदय सिंह की रक्षा की खातिर अपने पुत्र की कुर्बानी दी होगी , धाय मां धन्य है आप ।

               खमनौर पहुंचने के बाद विदित हुआ कि हल्दीघाटी के नाम पर अभी केवल एक म्यूजियम ही है जो किसी पूर्व शिक्षक ने अपनी मेहनत एंव चंदे के सहारे खमनौर से 3 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर बनवाया है , खैर वहां तक पहुंचने के लिए एक तिपहिया किराये पर लिया गया जिसने लगभग 10 मिनट में हल्दीघाटी म्यूजियम के आगे पहुंचा दिया । रास्ते मे गुलाबजल की कुछ दुकानें एंव चेतक स्मारक आया जिसका दर्शन वापिसी की यात्रा के दौरान तय किया गया ।

                   म्यूजियम में ऑडियो विजुअल झांकियो के साथ महाराणा प्रताप की वीरता को दर्शाने की कोशिश की गई है एंव संक्षेप में समस्त मेवाड़ के गौरवमयी इतिहास की एक झलक प्रस्तुत की गई है । ये वाकई में एक देखने योग्य स्थान है । यहां मालूम हुआ कि हल्दीघाटी को उसके मिट्टी के हल्दी के रंग का होने के कारण हल्दीघाटी कहते है । म्यूजियम से वापिस चले तो रास्ते मे चेतक स्मारक के पास रुके जो राणाजी के प्रिय घोड़े चेतक (जो कि हल्दीघाटी के रण में जख्मी हुए एंव उसने दम तोड़ दिया) की याद में राणाजी के वंशजों द्वारा उन्नीसवी सदी में ही बनवाया गया था , स्मारक के सामने ही एक झरना था जो पूरे साल बहता रहता है एंव उसी के बगल में एक गुफा है जहां राणाजी युद्ध उपरांत रुके थे ।

                    वहां से खमनौर वापिस आते समय राणाजी के सेनापति हाकिम खां सूरी की मजार के दर्शन हुए एंव कहा जाता है कि यहां पहाड़ी की चढ़ाई के शुरुआत में उनका सर धड़ से अलग होकर  गिरा था एंव धड़ दुश्मन से लड़ते हुए नीचे रक्ततलाई में घोड़े से गिरा। दूसरी गौर करने वाली बात ये भी कि राणाजी जो कि हिन्दू थे उनके सेनापति मुस्लिम थे (हक़ीमख़ाँ सूरी जो शेरशाह सूरी के वंशज थे)  जबकि अकबर जोकि मुस्लिम थे उनका सेनापति हिन्दू  थे(जयपुर के राजा मानसिंह) , इस देश मे हिन्दू मुस्लिम कौमी एकता का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही कोई होगा ।

                        खमनौर में रक्ततलाई में पार्क का निर्माण किया गया है । यहां तोमर वंश के तीनों आखिरी पिता पुत्र , झलमानसिह ,चन्द्रशेख राठौर समेत राणाजी के सभी सेनानायकों के स्मारक बने हुए हैं । यहां कहा जाता है कि आठ घण्टे के हल्दीघाटी युद्ध मे इतने सैनिक मारे गए कि जब युद्ध के बाद घनघोर बारिश हुई तो पूरी घाटी (तलाई) खून में सने पानी से भर गई जिसके कारण इसे ‘रक्त्त-तलाई’ का नाम दिया गया । इसके इलावा स्थानीय लोगों के हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय पर विचार भी जानने योग्य है ।

                        इस पार्क के दर्शन के पश्चात खमनौर में ही एक हॉटेल में स्थानीय पकवानों एंव समोसे का आनंद लिया गया एंव नाथद्वारा के नाथ जी के मंदिर में दर्शन के लिए निकल गए जिसका वर्णन अगले वृतांत में करूँगा ।

                        मगर वापिस जाते वक़त देश के इतने महान गौरव एंव स्वाभिमान के प्रतीक महाराणा प्रताप के सबसे प्रसिद्ध युद्धस्थली के प्रति सरकार के उदासीन रवैये को देख कर सच में पीड़ा हुई । मैं वहां से बहुत सा जज्बा एंव देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होकर लौटा मगर मन में टीस थी कि शायद महाराणा प्रताप से जुड़ी यादों की सहेज इससे तो बेहतर प्रबंधन एंव गौरव के लायक है ।

                            – गुलेश सुथार 

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